Wednesday, March 5, 2008

वो भी कभी हवलदार था

भारतीय सेना का वैसे तो पूरे विश्व में अपना रुतबा है। लेकिन आर्मी में डिसिप्लिन बनाये रखने के लिए ऐसा भी होता है, ये मुझे मेरठ में पता चला। एक दिन ऑफिस में शाम के वक्त अचानक एक सज्जन हाथ में कागज लेकर प्रकट हुए। साथ में हमारे एक सहयोगी पत्रकार की सिफारिश लाये थे। मामला पूछा तो आर्मी का निकला। सो उन्हें मेरी ओर सरका दिया गया। वो मेरे सामने बैठकर अपनी समस्या सुनाने लगे।वो आर्मी में काम करने वाले एक हवलदार के रिश्तेदार थे। उनका कहना था कि उनके जीजाजी, जो मेरठ कैंट में तैनात हैं, को उनके अधिकारियों द्वारा यातनाएं दी जा रही हैं। वो धीरे धीरे बात बढाते गए। मैं समझने की कोशिश करता गया। और सारी बात कुछ इस तरह निकल कर आई।फॉर्म १०उनके दुःख का कारण था आर्मी का फॉर्म १०। असल में फॉर्म १० सेना के जवान की मानसिक स्थिति बिगड़ जाने पर भरवाया जाता है। इसके बाद जवान को मनो विभाग में भर्ती करा दिया जाता है। वहां कुछ महीने के उपचार के बाद उसको वापस सेना में तैनात कर देते हैं। लेकिन उससे बंदूक वाला काम नहीं लेते। उसे सेना के दूसरे काम में लगाया जाता है। यह है फॉर्म १० की वास्तविकता।लेकिन आर्मी के कुछ जवानों का आरोप है कि जवानों को ज़ंग से भी इतना डर नही लगता जितना फॉर्म १० से लगता है। हवलदार के रिश्तेदार ने आरोप लगाया कि जब भी कोई जवान अनुशासन हीनता करता है उसको फॉर्म १० थमा दिया जाता है। यानि मानसिक रूप से बीमार दिखा दिया जाता है। इन साहब के रिश्तेदार की बस इतनी सी गलती थी की वो अपने मेरठ तबादले के बाद बिना इजाज़त के परिवार को ले आए थे. यह बात उनके आला अधिकारियों को नागवार गुजरी और उन्होंने जबरदस्ती हवलदार का फॉर्म १० भरवा दिया. इसके बाद यह हवलदार अक्तूबर २००७ से सेना के अस्पताल में भर्ती हैं। मुझसे मिलने आए साहब अपने साथ पूरे सबूत लाये थे। उन्होंने बताया की हवालदार की रिपोर्ट्स को जब एम्स अस्पताल में दिखाया गया तो डॉक्टर ने किसी भी मानसिक बीमारी से इंकार किया। हवालदार की उम्र केवल २९ साल है। उसकी बीवी बेहद परेशान है। उसने लोकल अधिकारियों से लेकर महिला आयोग और प्रेसिडेंट तक से गुहार कर ली। लेकिन कोई सेना के मामले में हस्तक्षेप नहीं करना चाहता। कहीं से कोई मदद नहीं।मैंने क्या किया फिर क्या था मुझे तो किसी की मदद करने का मौका मिल रहा था। मैंने अगले ही दिन सेना के अस्पताल में दस्तक दे दी। वहां बाहर गार्ड से पूछा तो उसने बताया की मानसिक विभाग अस्पताल से बिल्कुल अलग बनाया गया है। मैं वहां गया। वहां तैनात डॉक्टर से हवालदार से मिलने की इजाज़त चाही। डॉक्टर का कहना था की बाहर वालों को , खासतौर से मीडिया को तो मरीजों से नही मिलने दिया जाता। फिर मैंने उनसे मालूमात की तो उन्होंने कहा की हमें मीडिया को बयां देने का अधिकार नहीं है। लेकिन वो यह सलाह देना नहीं भूले की मुझे सेना के मामले में न पड़कर एक जिम्मेदार पत्रकार का फ़र्ज़ अदा करना चाहिए। इसके बाद उन्होंने बयां लेने के लिए अपने से ऊपर बैठे अधिकारी का पता बता दिया। उनका ऑफिस मानसिक विभाग के सामने ही था। मैं उनके पास पहुँच गया। लेकिन मेरे वहां पहुँचने से पहले ही उनके पास मेरे बारे में जानकारी पहुच चुकी थी। उन्होंने बड़ी इज्ज़त से मेरा इस्तकबाल किया। जो अमूमन आमतौर पर देखने को नही मिलता। खैर उन्होंने केवल इतना कहा की सेना और सिविल में काम करने के तौर तरीके अलग होते हैं। लेकिन किसी के साथ अन्याय नहीं किया जा रहा है।सेना का मामला होने की वजह से मैंने एक दो दिन ख़बर को रोक लिया। लेकिन हवालदार के परिज़नों का फ़ोन आया की हवालदार को मेरठ के अस्पताल से से पुणे ट्रान्सफर करने की तैयारी चल रही है। फिर क्या था मैंने तत्काल स्टोरी ड्राफ्ट करके तैयार कर दी। मामले में सैन्य प्रवक्ता का बयां लिया। एक बार को वो भी सकपका गए। लेकिन स्टोरी मेरे अखबार के अलावा एक और अख़बार में प्रमुखता से छपी। मीडिया की सक्रियता देखते हुए उस हवालदार को पुणे भेज दिया गया। हारकर भी हमारी खबर हवालदार की ज्यादा मदद नहीं कर पायी। दूसरा हवलदार की पैरोकारी करने वाले भी कुछ ढीले पड़ गए।लेकिन फॉर्म १० के बारे में जानकर काफ़ी धक्का लगा। बताया जाता है की ऐसे कई जवान हैं जो फॉर्म १० की मार झेल रहे हैं।

जिनके महलों में अमीरी के शजर सजते हैं, उनके ऐब भी दुनिया को हुनर लगते हैं।

Thursday, February 28, 2008

एक था प्रोफेसर

hamesa
याद रहेगी वो पन्द्रह जनवरी की रात, समय रहा होगा यही कोई दो बजे
का. बर्फीली हवाये हाड़ कंपा रही थी । हर कोई कपड़ो मे दुबक रहा था, मैं भी दफ्तर से छूटकर सरपट दोड़ा जा रहा था। घंटाघर पर पहुँचा ही था कि एक मैले कुचेले से आदमी ने मुझे रुकने का इशारा किया, मैं समझ गया था कोई पागल होगा या निश्चित रूप से कोई भिकारी तो होगा ही। खैर मैंने बाईक रोककर मेरठी स्टाईल मे पूछा "क्या काम है"। जवाब मे शख्स ने अपनी मजबूरी बताकर खाने के लिए कुछ पैसे मांगे, उसने ख़ुद को साबित करने के लिए फटाफट इंग्लिश भी बोलकर दिखाई। मैं समझ गया ये आदमी कोई साधारण आदमी तो नहीं है थोडी ही देर उक्त शख्स का जब असली परिचय मेरे सामने आया तो मेरे पैरो तले से जमीन खिसक गई। dar ashal ये वही शख्स था जो आज से छह साल पहले तक एक डिग्री कालेज मे राजनीति का प्रोफेसर हुआ करता था. प्रोफेसर भी ऐसा वैसा नहीं रोबदार। मैंने भी इसी कालेज से स्नातकोत्तर किया था, राजनीति मे मेरी ज्यादा रूचि थी, इसको लेकर मैं "गुरुजी" का प्रिय शिष्य था, मामला ये था कि गुरु जी कुछ पारिवारिक मामले मे दिमागी हालत खो बैठे। उनको आगरा मे भरती कराया गया कुछ दिन बाद नार्मल होने पर उनको छुट्टी दे दी गई। इस बीच घर का माहोल बदल चुका था। गुरु जी ने घर जाने के bajaye ख़ुद कि पहचान छुपाकर जीने का फ़ैसला किया। हापुर मे एक दुकान पर नोकरी भी कि मगर बात नहीं बनी नोबत यह तक आ गई कि पल्लेदारी भी करनी पड़ी। गुरु जी कि हकीकत जानकर मेरी आँखे भी छलछला उठी। मैंने उनके पैर छूकर माफ़ी मांगी, तभी उनको नयिम भाई के होटल मे लेजाकर खाना खिलाया और रात को रुकने का इंतजाम कराया। सुबह उठकर मैं उनको पहली सैलून मे ले गया लंबे बालो वाले हुलिए को ठीकठाक कराया। उनकी बेटी से सम्पर्क कर उनके पास पहुँचाया । आज वो अपने घर मे खुश है । कोलेज से सेवानिव्रात्ति कि अर्जी लगा चुके है उसके बाद से मुझे कई बार घर आने का न्योता दे चुके है।

-कपिल कुमार

फिरकापरस्ती


घर बनाना था ये क्या बना बैठे
कहीं मन्दिर बना बैठे, कहीं मस्जिद बना बैठे।
अच्छा है परिंदों के यहाँ फिरकापरस्ती नही होती,
कभी मस्जिद पर जा बैठे, कभी मन्दिर पर जा बैठे॥