Thursday, February 28, 2008

एक था प्रोफेसर

hamesa
याद रहेगी वो पन्द्रह जनवरी की रात, समय रहा होगा यही कोई दो बजे
का. बर्फीली हवाये हाड़ कंपा रही थी । हर कोई कपड़ो मे दुबक रहा था, मैं भी दफ्तर से छूटकर सरपट दोड़ा जा रहा था। घंटाघर पर पहुँचा ही था कि एक मैले कुचेले से आदमी ने मुझे रुकने का इशारा किया, मैं समझ गया था कोई पागल होगा या निश्चित रूप से कोई भिकारी तो होगा ही। खैर मैंने बाईक रोककर मेरठी स्टाईल मे पूछा "क्या काम है"। जवाब मे शख्स ने अपनी मजबूरी बताकर खाने के लिए कुछ पैसे मांगे, उसने ख़ुद को साबित करने के लिए फटाफट इंग्लिश भी बोलकर दिखाई। मैं समझ गया ये आदमी कोई साधारण आदमी तो नहीं है थोडी ही देर उक्त शख्स का जब असली परिचय मेरे सामने आया तो मेरे पैरो तले से जमीन खिसक गई। dar ashal ये वही शख्स था जो आज से छह साल पहले तक एक डिग्री कालेज मे राजनीति का प्रोफेसर हुआ करता था. प्रोफेसर भी ऐसा वैसा नहीं रोबदार। मैंने भी इसी कालेज से स्नातकोत्तर किया था, राजनीति मे मेरी ज्यादा रूचि थी, इसको लेकर मैं "गुरुजी" का प्रिय शिष्य था, मामला ये था कि गुरु जी कुछ पारिवारिक मामले मे दिमागी हालत खो बैठे। उनको आगरा मे भरती कराया गया कुछ दिन बाद नार्मल होने पर उनको छुट्टी दे दी गई। इस बीच घर का माहोल बदल चुका था। गुरु जी ने घर जाने के bajaye ख़ुद कि पहचान छुपाकर जीने का फ़ैसला किया। हापुर मे एक दुकान पर नोकरी भी कि मगर बात नहीं बनी नोबत यह तक आ गई कि पल्लेदारी भी करनी पड़ी। गुरु जी कि हकीकत जानकर मेरी आँखे भी छलछला उठी। मैंने उनके पैर छूकर माफ़ी मांगी, तभी उनको नयिम भाई के होटल मे लेजाकर खाना खिलाया और रात को रुकने का इंतजाम कराया। सुबह उठकर मैं उनको पहली सैलून मे ले गया लंबे बालो वाले हुलिए को ठीकठाक कराया। उनकी बेटी से सम्पर्क कर उनके पास पहुँचाया । आज वो अपने घर मे खुश है । कोलेज से सेवानिव्रात्ति कि अर्जी लगा चुके है उसके बाद से मुझे कई बार घर आने का न्योता दे चुके है।

-कपिल कुमार

फिरकापरस्ती


घर बनाना था ये क्या बना बैठे
कहीं मन्दिर बना बैठे, कहीं मस्जिद बना बैठे।
अच्छा है परिंदों के यहाँ फिरकापरस्ती नही होती,
कभी मस्जिद पर जा बैठे, कभी मन्दिर पर जा बैठे॥